सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

आज भी उसर मगहर


आज भी उसर संत कबीर नगर


काशी हो या फिर उजाड़ मगहर मेरे लिए (कबीर) दोनों ही बराबर हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हैं. अगर कबीर की आत्मा काशी में इस तन को त्यागकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा एहसान है…
देश 15वीं सदी से 21वीं सदी में प्रवेश कर गया लेकिन संत कबीर की निर्वाण स्थली आज भी उजाड़ है. समय की धारा के साथ संत कबीर नगर ने का़फी उतार-चढ़ाव देखे. पहले इसे खलीलाबाद कहा जाता था. फिर संत कबीर दास के नाम पर इसे संत कबीर नगर कहा जाने लगा. कबीर का नाम तो मिल गया लेकिन उनके जैसी प्रसिद्धि हासिल न हो सकी. कबीर की निर्वाण स्थली होने के बावजूद यह ज़िला पर्यटन के नक्शे से नदारद है. 11 अगस्त, 2003 की बात है, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मगहर आए थे. मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने भी उस समय मगहर की दुर्दशा को महसूस किया था. अपनी पीड़ा को उन्होंने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाया जाना चाहिए. कबीर के विचार और संदेश आज के दौर में पहले से अधिक प्रासंगिक हैं. कलाम के प्रयासों से एक लाख रुपया समाधि स्थल और एक लाख रुपया मजार स्थल को विकसित करने के लिए मिला था.
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा.
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा
वह दिन है और आज का समय, शासन स्तर से कोई मदद मगहर को नहीं मिली. संत कबीर के दोहों और उनके संदेश का ही असर रहा कि खलीलुर्रहमान ने सर्व धर्म समभाव की भावना के साथ  ़खलीलाबाद नगर बसाया जिसे वर्ष 1997 में ज़िला मुख्यालय का दर्ज़ा मिला.खलीलुर्रहमान मुगल शासन काल में दिल्ली में रहते थे, जहां उनकी मुलाकात मुगल बादशाह औरंगजेब से हुई. खलीलुर्रहमान की बुद्धिमता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें गोरखपुर परिक्षेत्र का चकलेदार एवं काजी नियुक्त कर दिया.  खलीलुर्रहमान ने गोरखपुर और बस्ती के बीच खलीलाबाद कस्बा बसाया. वर्ष 1737 में उन्होंने शाही  किला बनवाया. किले के अंदर मस्जिद का निर्माण भी कराया गया. खलीलुर्रहमान ने अपने पुश्तैनी गांव मगहर स्थित जामा मस्जिद से शाही किले तक आने-जाने के लिए सुरंग मार्ग भी बनवाया जो नौ किलोमीटर लंबा और 15 फीट चौड़ा है. इसी रास्ते से वह अपनी टमटम पर बैठकर किले तक जाते थे और वहां फरियादियों की दिक्कतोंको सुनकर इंसा़फ करते थे. किले और शाही रास्ते की सुरक्षा के लिए हर समय पहरेदारों की तैनाती रहती. गोरखपुर और बस्ती के बीच स्थित शाही किले खलीलाबाद को बारी (मुख्यालय) का दर्ज़ा हासिल था. मुगल शासनकाल में गोरखपुर का मुख्यालय खलीलाबाद ही था. खलीलाबाद जहां का तहां रह गया लेकिन गोरखपुर और बस्ती दोनों ही मंडल मुख्यालय बन चुके हैं. काजी खलीलुर्रहमान की प्रसिद्धि इतनी फैली कि मगहर के एक मोहल्ले का नाम ही काजीपुर पड़ गया. काजी  खलीलुर्रहमान के वंशज आज भी अपने नाम के आगे काजी शब्द जोड़ना नहीं भूलते हैं. काजी का मतलब न्यायाधीश, जो उन्हें अपने ग़ौरवशाली अतीत की याद दिलाता है. बताया जाता है कि खलीलुरर्र्हमान साहब एक बार मथुरा गए जहां उन्होंने कई हिंदू मंदिरों में दर्शन पूजन किया. कबीर का प्रभाव उनके मन-मस्तिष्क पर पहले से ही था, सर्व धर्म समभाव की अलख जगाने के लिए उन्होंने शाही  किले में एक मंदिर का निर्माण भी कराया. मुगल शासन काल का अंत होने के साथ ही खलीलाबाद का वैभव भी फीका पड़ने लगा. शाही किले पर क़ब्ज़ा करने के मकसद से अंग्रेजों ने आक्रमण किया लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी. इसमें कई लोग शहीद भी हुए जिन पर समूचा ़खलीलाबाद आज भी गर्व करता है. शाही किले के अंदर पूरब दिशा में पहले तहसील कार्यालय हुआ करता था, जो अब डाक बंगला के सामने स्थानांतरित हो चुका है. किले के पश्चिमी  हिस्से में स्थापित माता का मंदिर हिंदू समाज की आस्था का केंद्र है.
शाही किला वर्तमान समय में पुलिस कोतवाली में तब्दील हो चुका है. किले के पीछे के हिस्से में पूरब दिशा में निकास स्थान का स्वरूप बदलकर इसे कोतवाली में बदल दिया गया है. राजनीतिक उपेक्षा और प्रशासनिक लापरवाही से यह धरोहर नष्ट होने को है. मगहर से खलीलाबाद तक नौ किलोमीटर लंबे शाही मार्ग के अब अवशेष ही बचे हैं. उन्हें डर है कि कहीं सरकार पर्यटन विभाग इसे अपने क़ब्ज़े में न कर ले. शाही किला हाथ से निकल गया और आज वह दुर्दशा का शिकार है. फिर इस सुरंग का भी बुरा हाल होगा. मगहर निवासी काजी अदील अहमद बताते हैं कि 50 एकड़ क्षेत्रफल में फैले भू-भाग में उनके पूर्वज काजी खलीलुर्रहमान साहब ने शाही किले, मस्जिद, मंदिर और पोखरे का निर्माण कराया था, जो उनकी कौमी  एकता की विचारधारा को पुष्ट करता है. वह गर्व से कहते हैं कि जाति धर्म से ऊपर उठकर काजी खलीलुर्रहमान ने जो कार्य किए, वह इतिहास के पन्नों में उन्हें सदैव के लिए अमर कर गए हैं. काजी अदील जानकारी देते हैं कि शाही किले में वर्ष 1953 में पुलिस थाना बनाया गया. किले के स्वरूप में बदलाव करते हुए इसके पिछले हिस्से को कोतवाली के मुख्य द्वार के रूप में तब्दील कर दिया गया. खाली भूखंड पर पुलिसकमिर्र्यों के लिए आवास बनवा दिए गए. काजी अदील अहमद ने 50 एकड़ में फैले इस भू-भाग को अपनी खानदानी संपत्ति बताते हुए शासन से इसे उनके परिवार के सुपुर्द करने की मांग भी की है. वहीं संत कबीर नगर के नागरिकों की मंशा है कि शासन प्रशासन के अधिकारी मगहर से शाही  किले तक बनवाई गई सुरंग की सा़फ-सफाई कराकर उसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करे और पूरे हिस्से को राष्ट्रीय स्मारक का दर्ज़ा देकर उसका संरक्षण किया जाए. कबीर की निर्वाण स्थली और काजी खलीलुर्रहमान के शाही किले के साथ ही पर्यटन के लिए इस ज़िले में रमणीय स्थलों की कमी नहीं है. यहां खलीलाबाद से आठ किलोमीटर की दूरी पर गामा गांव में महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है. यह मंदिर भगवान तामेश्वर नाथ को समपिर्र्त है. मान्यता है कि मंदिर में स्थापित मूर्ति तामा के समीप स्थित जंगल में मिली थी. राजा बंसी ने इस मूतिर्र् को मंदिर में स्थापित कराया. प्रत्येक वर्ष यहां शिवरात्रि में बड़ा मेला लगता है जिसमें लाखों भक्त हिस्सा लेते हैं. इसके अलावा कई अन्य स्थान हैं जो पर्यटकों को सहज रूप में अपनी ओर आकर्षित करते हैं फिर भी पर्यटन के नक्शे पर संत कबीर नगर उपेक्षित है.

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