सोमवार, 28 फ़रवरी 2011


पारस हैं कबीर



कबीर अद्भुत हैं। अनूठे हैं । उनमें भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी समायी हुई है।

विश्व के अधुना से अधुना विचार कबीर की वैचारिक उजास के फीके और दोहराये गये लगते हैं। कबीर ऐसे क्रान्तिकारी हैं, जिसके सामने आज तक की सभी क्रांन्तियाँ अधूरी हैं, अपूर्ण हैं । कबीर के विचारों में आधुनिकता ही नहीं, उत्तर-आधुनिकताएँ समाहित हैं। साम्यवाद, जनवाद, वाम-नववाम के विचार हों या आस्तित्ववाद के मूल्य-मान, कबीर ने लगता है अपने समय में खड़े होकर भविष्य की सदियों तक की वैचारिक संभावनाओं का साक्षात्कार कर लिया है।

अंध भक्ति से सहज भक्ति को, अज्ञान से ज्ञान को, अकर्म से कर्म को अलगाते और महिमा प्रदान करते कबीर अद्भुत सिद्ध होते हैं। हाथ के मामूली से मामूली कर्म को पूजा बना देना - ताने और बाने से रामनामी बुन देना कबीर के बूते का काम है। गांधी जब कहते हैं कि “मैं कबीर का पुजारी हूँ” तब समझ आता है कि गांधी दूसरों का विष्ठा टोकरे में भर कर अपने सिर पर कैसे उठा लते हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कबीर की एक सौ कविताओं (“Hundred poems of Kadir ”) का अनुवाद करने से उपलब्ध दृष्टि को ‘गीतांजलि’ में उतार पाते हैं तो स्वाभाविक ही है। कबीर पारस हैं। जिसे छू जायें सोना कर दें !

जिस माया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बाँध रखा है, वह कबीर का बाल भी बाँका नहीं कर पायी । हिन्दुओं-मुसलमानों, नाथों, सिद्धों, सूफियों यानी सम्प्रदायों के अहंकार और ज्ञान और घेरों में कबीर कहीं नहीं फँसे। सब पर प्रहार करने की क्षमताएँ उन्हें उस सत्य की जमीन से प्राप्त हुई जिस पर वह मजबूती से खड़े थे यानी विशुद्ध इन्सान होने की पूरी होश सहज होने की होश :

कह कबीर मैं कछु नहिं कीन्हा

सहज सुहाग राम मोहि दीन्हा।

अहंकार और लोभ का त्याग करने और श्रम को पूजा की महत्ता देने से कबीर को जो सुहाग मिला - वह किसी भी सच्चे धर्म का मूल मंत्र हो सकता है।

भारत के महान संत कबीर साहेब अपने जैसे अकेले महापुरुष हुए हैं भारत में, जिन्हें विश्व अभी पूरी तरह से नहीं जानता। साहित्यकार-विद्वान उन्हें क्रांन्तिदर्शी कवि मानते हैं। समाज-राजनीति के लोग महान समाज-सुधारक । कबीर पंथी-अनुयायी ईश्वर का अवतार । धर्म-अध्यात्म-योग के क्षेत्र में वह स्वसंवेद या वेद की अवतारना करने वाले अनन्य योगी और धार्मिक माने जाते हैं। हिन्दू और हिन्दू मानते हैं, मुसलमान मुसलमान। कबीर स्वयं को न हिन्दू मानते हैं, न मुसलमान। सिर्फ एक इन्सान मानते हैं और दुनिया भर को उनका यही प्रमुख उपदेश है कि ख़ुद को एक इन्सान मानों और अच्छा इन्सान सिद्ध करो। उसने जन्म, मृत्यु आदि के बाबत कई-कई इस उक्ति के अनुसार ही मानी जाती है। “चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार इक ठाठ ठए।” अर्थात कबीर का जन्म संवत् 1455 विक्रमी (सन् 1398 ई.) के आस-पास माना जाता है। साहित्यिक-ऐतिहासिक दस्तावेज इसी तिथि को प्रमाणित करते हैं।

उनके जन्म के बारे में कई-कई कथाएँ प्रचलित हैं। सबसे अधिक मान्य कथा के अनुसार कबीर का जन्म काशी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ । लोकलाज के भय से इस शिशु को जन्म लेते ही उसे लहरतारा नामक तालाब के किनारे पर छोड़ दिया। वहाँ से गुजरते हुए नीरू पर नीमा नाम के जुलाहा दम्पति ने उसे उठा लिया। घर ले आये। अपनी संतान बना कर पालन किया। उसे अपने पेशे के हुनर दिये।

जाति जुलाहा नाम कबीरा,

बनि बिन फिरौं उदासी।(क.ग्रं.)


इस तरह कबीर को हिन्दू और मुस्लिम दोनों के संस्कार प्राप्त हुए। कहते हैं कबीर बचपने से ही अन्तर्मुखी, एकान्तप्रिय और साधु स्वभाव के थे। साधुओं की संगति उन्हें प्रिय थी। भक्ति में मन रमता था। उन्हें इन्हीं साधु-संतों के सम्पर्क और संगति में आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में गुरु रामानंद की कृपा से आत्मज्ञान में भक्तिभाव का भी समावेश हो गया।
वह उपने पैतृक जुलाहा कार्य करते हुए प्रभु की भक्ति में लीन रहते है। आत्मशुद्धि और ज्ञान-चर्चा में मस्त रहते । कबीर की पत्नी का नाम ‘लोई’ माना जाता है। कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) उनके दो संतानों हुई । कबीर मृत्यु से पूर्व मगहर चले गये थे। उनकी रचनाओं में भी इस बात के संकेत विद्यमान हैं :

सकल जनम शिवपुरी गवाइया ।

मरती बार मगहरि उठि धाइया।।


मगहर में कबीर की समाधि अब भी मौजूद है। मगहर में ही उनकी मृत्यु हुई। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी भिन्न-भिन्न मत हैं। किन्तु अधिकतर विद्वान निम्न दोहे के आधार पर उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन् 1518 ईं.) मानते हैं :


संवत् पन्द्रह सौ पछहत्तर कियो मगहर को गौन,

भाग सुधी अकादसी रलो पौन में पौन।।


विश्वभर में जितने भी धर्म-सम्प्रदाय हुए हैं। उसने अनुयायियों में अपने गुरु या आदि-पुरुष के चमत्कारी स्वरूप की कथाएँ जैसे प्रचलित हैं वैसे ही कबीर पंथियों में भी हैं। जैसे जन्म को लेकर कबीर को अवतारी पुरूष सिद्ध करने के लिए उन्हें अयोनिज माना जात है। यह विश्वास है कि कबीर दिव्यपुंज के रूप में कमल-पुष्प के ऊपर अवतरित हुए । इसी प्रकार देहावसान के समय हिन्दू-मुसलमान जब परस्पर लड़ रहे थे - अपनी-अपनी रीति-अनुसार हिन्दू उनके शव पर पड़ी चादर जब हटायी गई तो शव के स्थान पर पुष्प मिले । दोनों तरफ के लोगों ने आधे-आधे पुष्प ले लिए और अपनी-अपनी रीति से अंतिम क्रिया की।



अपने गुरु के चमत्कारी रूप में विश्वास करना धार्मिक विश्वासों का अतिरंजित रूप हो सकता है परंतु यह अस्वाभाविक नहीं है। कबीर-भक्तों की श्रद्धा की अभिव्यक्ति अधिक है, इसमें तथ्यों की जनाकारी भले ही कम है।
कबीर के नाम पर मिलने वाले ग्रंथों की संख्या के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न खोजों के आधार पर अलग-अलग मत हैं। सबसे पहली खोज सन् 1903 में श्री एच.एच विल्सन द्वारा की गई। उन्होंने कबीर साहब के कुल आठ ग्रंथों की सूची गिनाई। किन्तु अंतिम व्यापक खोज जो नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा कराई गई उसके अनुसार 140 ग्रंथों की सूची प्रकाशित की गई। किन्तु इन रचनाओं के प्रामाणिक-अप्रामाणिक होने का निर्णय अभी भी शेष है। बीजक नाम के उनके प्रमुख ग्रंध में रमैनी, शब्द, साखी, कहरा, बसंद, बेलि, बिरहुली, चांचरि, हिंडोला, चौंतीसा, विप्रमतीसी आदि काव्य रूप मिलते हैं।
कबीर साहब की भाषा में अनेक श्रेत्रीय बोलियों, भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं। अतः उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या खिचड़ी कहा गया है। अभिप्राय है कि साधु-संगति में विकसित भाषा। किन्तु मुख्य बात यह है कि उन्होंने जो भी सूक्ष्म से सूक्ष्म बात कहनी चाही है उसके लिए भाषा अपने आप उतरती चली आयी है। उन्हें भाषा की मुहताजी नहीं करनी पड़ी, बल्कि भाषा ही उनकी मुहताज रही है। उन्होंने लोक से भाषा ली और उसमें अपने तेज मिल कर लोक को समर्पित कर दि‍या।
डॉ बलदेव वंशी 
ए-3/283, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063

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