कबीर साहब (kabeer sahab)
कबीर साहब संवत १४५५ ( सन् १३९८ ) ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को प्रकट हुए | इनके पिता का नाम नूरअली उर्फ़ नीरू और माता का नाम नीमा था | कहा जाता है कि इनकी असली माँ एक हिन्दू विधवा थीं | जब वह रामानंद स्वामी के दर्शन को गयीं तो उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तुम्हें पुत्र पैदा हो | स्त्री घबरा गयी कि मैं तो विधवा हूँ , मुझे कैसे पुत्र प्राप्ति होगी ? स्वामी जी ने कहा कि अब तो मुंह से निकल गया है , तेरा गर्भ किसी को ज्ञात नहीं होगा | स्त्री के पुत्र पैदा हुआ और उसने उसे लहरतारा के तालाब में डाल दिया | नीरू जुलाहा उसे वहां से निकलकर लाया | '' कबीर कसौटी '' के अनुसार जेठ की पूर्णिमा को सोमवार के दिन नीरू को बालक प्राप्त हुआ |
वह स्वामी रामानंद जी के शिष्य थे | एक बार स्वामी जी ने अपने पिता के श्राद्ध के लिए कबीर साहब से पिंड दान के लिए दूध मंगवाया | कबीर साहब एक मरी हुई गाय के मुंह में सानी डालने लगे | लोगों के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि जैसे हमारे गुरूजी के मरे पुरखे पिंड खायेंगे वैसे ही यह गाय भी खायेगी |
कबीर साहब जुलाहे के घर में पले बढे थे | कपडा बुनते थे | उनकी पत्नी का नाम लोई , बेटे और बेटी का नाम कमाल और कमली था | कोई कहता है कि उन्होंने विवाह ही नहीं किया था , एक लड़के और लड़की को पाला था और लोई उनकी चेली थी |
जो भी हो लोई एक ऊँचे दर्जे की स्त्री थी | कबीर साहब की बहुत बड़ी भक्त थीं एवं जिज्ञासु महिला थीं |
काशी के पंडित कबीर साहब से बहुत ईर्ष्या रखते थे | एक बार उन्होंने कबीर साहब की तरफ से सब कंगलों को भोजन का निमंत्रण दिया | लाखों आदमी उनके घर के बाहर जमा हो गए | कबीर साहब ने एक हांडी में थोडा सा भोजन बनाकर कपडे से ढँक दिया और बाहर भिजवा दिया | सेवक से कहा कि हाथ डालकर जितना भोज निकले लोगों को खिलाते जाओ | सबने पेट भर खाया और हांडी फिर भी वैसे ही भरी की भरी थी |
सिकंदर लोधी जब काशी आया तो मुसलमानों और ब्राह्मणों के कहने पर उसने इन्हें जंजीर से बंधवाकर गंगाजी में डलवा दिया , पर यह डूबे नहीं | तब आग में डलवाया , पर कुछ न बिगाड़ सके | फिर एक मस्त हाथी इन पर छोड़ा , वह भी भाग खडा हुआ | काशी के उत्तर बस्ती जिले में मगहर है | परम धाम जाने से पहले कबीर साहब वहीँ जाकर रहे |
हिन्दुओं ने इनके मृत शरीर को जलाना और मुसलमानों ने गाढ़ना चाहा | बहुत विवाद फसाद हुआ | अंत में जब चादर उठाकर देखा तो वहां पर फूल पड़े थे | शरीर गायब था | हिन्दुओं ने फूल लेकर मगहर में समाधि बनायी और मुसलमानों ने कब्र जो अब तक साथ साथ हैं |
कबीर साहब सच्चे संत थे | उनकी बानी में से कुछ साखियाँ नीचे प्रस्तुत हैं----
यह तन विष की बेलरी , गुरु अमृत की खान |
सीस दिए जो गुरु मिलें , तो भी सस्ता जान || ( यह तन विष बेल के सामान है , गुरु ही अमृत कि खान हैं | अपना सर कटा कर भी जो गुरु मिल जाएँ तब भी उसे सस्ता ही जानो )
प्रीतम को पतियाँ लिखूं , जो कहीं होय विदेस |
तन में , मन में नैन में , ता को कहा संदेस ||
( प्रीतम को तो मैं तब ख़त लिखूं जो वह कहीं परदेस में हो | जो मेरे तन , मन आँखों में बसा है उसे कैसा संदेस लिखूं | प्रीतम से इनका मतलब ऊपर वाले से है | )
मो में इतनी शक्ति कहाँ , गाऊं गला पसार |
बन्दे को इतनी घनी ,पड़ा रहे दरबार ||
( मुझ में इतनी शक्ति कहाँ है कि जोर जोर से गला फाड़ कर गाऊं ? अगर बन्दे को इतनी पड़ी है तो वह जाकर दरबार में पड़ा रहे |
इसका मतलब है कि जोर जोर से गाने से गुरु नहीं मिलते , वह तो हमारे अन्दर ही हैं )
कबीर आप ठगाइए , और न ठगिये कोय |
आप ठगे सुख उपजै , और ठगे दुःख होय ||
( कबीर दास जी कहते हैं कि अपने आप को लुटा दो औरों को ठगने से क्या होगा ? अपने आप को लुटा देने से सुख उपजता है , औरों को ठगने से दुःख उपजता है )
पंडित और मसालची , दोनों सूझे नाहीं |
औरन को करें चाँदना , आप अँधेरे माहीं ||
( मतलब कि पंडित और मशाल जलाने वाले दोनों को कुछ नहीं दिखता , दूसरों को रौशनी दिखाते हैं पर खुद अँधेरे में रहते हैं |यानि कि पहले खुद ज्ञान प्राप्त करो , फिर औरों को दो )
एक दिन नाहि करि सकै , तो दूजे दिन करि लेहि |
कबीर साधू दरस तें , पावे उत्तम देहि ||
( मतलब कि जो काम एक दिन नहीं किया तब दूसरे दिन जरुर कर लेना | कबीर दास जी कहते हैं कि साधू संतों के दर्शन से उत्तम
देह कि प्राप्ति होती है )
दूजे दिन नहीं करि सके , तीजे दिन करि जाए |
कबीर साधू दरस तें , मोच्छ मुक्ति फल पाए ||
( मतलब कि दूसरे दिन भी नहीं कर सके तो तीसरे दिन कर लेना , कबीर दास जी कहते हैं कि साधू संतों के दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति होती है )
तीजे चौथे नहीं करे , तो वार वार करि जाए |
या में विलंब न कीजिये , कहत कबीर समुझाय ||
( तीसरे दिन और चौथे दिन नहीं किया तो सप्ताह में एक बार जरुर किसी भी वार में करना | इसमें यानि कि संतों के दर्शन में देर न करना , यह कबीर दास जी बार बार समझा कर कह रहे हैं )
वार वार नहीं करि सकै , तो पाख पाख करि लेय |
या में विलंब न कीजिये , कह कबीर समुझाय ||
( अगर वार वार पर भी नहीं कर सके तब पक्ष , पक्ष यानि कि १५ दिनों में कर लेना और अपना जनम सफल कर लेना )
पाख पाख नहीं करि सकै , तो मास मास करि जाए |
या में देर न लाइए , कहत कबीर समुझाय ||
( अगर पक्ष पर भी दर्शन नहीं कर सके तो एक महीने में जरुर कर लेना , यह कबीर दास जी समझा कर कह रहे हैं )
मास मास नहीं करि सकै , तो छठे मास अलबत्त |
या में ढेल न कीजिये , कहत कबीर अविगत्त ||
( अगर महीने में भी न कर सके तो ६ महीने में एक बार कर लेना , यह कबीर दास जी कह रहे हैं कि इसमें ढील बिलकुल न देना )
छठे मास नहीं करि सकें , बरस दिना करि लेय |
कह कबीर सो भक्त जन , जमहिं चुनौती देय ||
( यदि ६ माह में भी नहीं कर सको तब साल में एक बार जरुर दर्शन कर लेना | कबीर दास जी को भक्त जन कहते हैं कि यूँ ही चुनौती देते रहते हो )
बरस बरस नहीं करि सकै , ता को लागे दोष |
कहे कबीरा जीव सूं , कबहू न पावे मोष ||
( अगर साल में एक बार भी दर्शन नहीं किया तब दोष लगता है , कबीर दास जी जीवों से कहते हैं कि तब कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है )
संत कबीर के कुछ शब्द ---
१
यह संसार कागद की पुड़िया , बूँद पड़े घुल जाना है ||
यह संसार कांट की बाड़ी , उलझ पुलझ मरि जाना है ||
यह संसार झाड़ और झाँखर , आग लगे बरि जाना है ||
कहत कबीर सुनो भाई साधो , सतगुरु नाम ठिकाना है ||
मतलब कि यह संसार एक कागज़ की पुडिया के सामान है , पानी की बूँद पड़ते ही घुल जायेगा , नश्वर है | यह संसार काँटों की बाड़ी के सामान है जिसमें उलझ कर हम मर जाते हैं | यह संसार झाडियों के सामान है , आग लगते ही जल जाता है | कबीर जी कहते हैं की भगवान् का नाम लेना ही सही ठिकाना है |
२
हुआ जब इश्क मस्ताना , कहें सब लोग दीवाना ||
जिसे लागी सोई जाना , कहे से दर्द क्या माना ||
मैं तेरा दास हूँ बन्दा , तुझी के नेह में फंदा |
ममत की खान में डूबा , कहो कस मिले महबूबा ||
मतलब कि जब भगवान से इश्क होता है तब लोग उसे दीवाना कहते हैं | पर जिसे लगन लगी हो वह ही जानता है कि दर्द क्या होता है , मैं तेरा दास हूँ , तेरे प्रेम में फंसा हूँ | तेरी ममता कि खान में फंसा हूँ |
३
चौपड़ खेलूं पीव से रे , तन मन बाजी लगाय |
हारी तो पिय की भयी रे , जीती तो पिय मोर हो ||
लाख चौरासी भरमत भरमत , पौ पे अटकी आय |
जो अबके पौ न पड़ी रे , फिर चौरासी जाय हो ||
मतलब कि मैं चौपड़ का खेल खेल रही हूँ , अगर हार गयी तो पिया की हुई , मतलब कि भगवान की हुई और जीती तो भगवान मेरा हुआ | चौरासी लाख योनियों में भटकते भटकते मेरी बाजी यहाँ पर अटक गयी है | अगर अब पार नहीं नहीं लगी तो फिर से चौरासी जाना पड़ेगा , यानि कि जन्म मरण के चक्करों में पड़ना पड़ेगा |
कबीरदास जी का कमरा मगहर में |
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