सोमवार, 28 फ़रवरी 2011


पारस हैं कबीर



कबीर अद्भुत हैं। अनूठे हैं । उनमें भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी समायी हुई है।

विश्व के अधुना से अधुना विचार कबीर की वैचारिक उजास के फीके और दोहराये गये लगते हैं। कबीर ऐसे क्रान्तिकारी हैं, जिसके सामने आज तक की सभी क्रांन्तियाँ अधूरी हैं, अपूर्ण हैं । कबीर के विचारों में आधुनिकता ही नहीं, उत्तर-आधुनिकताएँ समाहित हैं। साम्यवाद, जनवाद, वाम-नववाम के विचार हों या आस्तित्ववाद के मूल्य-मान, कबीर ने लगता है अपने समय में खड़े होकर भविष्य की सदियों तक की वैचारिक संभावनाओं का साक्षात्कार कर लिया है।

अंध भक्ति से सहज भक्ति को, अज्ञान से ज्ञान को, अकर्म से कर्म को अलगाते और महिमा प्रदान करते कबीर अद्भुत सिद्ध होते हैं। हाथ के मामूली से मामूली कर्म को पूजा बना देना - ताने और बाने से रामनामी बुन देना कबीर के बूते का काम है। गांधी जब कहते हैं कि “मैं कबीर का पुजारी हूँ” तब समझ आता है कि गांधी दूसरों का विष्ठा टोकरे में भर कर अपने सिर पर कैसे उठा लते हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कबीर की एक सौ कविताओं (“Hundred poems of Kadir ”) का अनुवाद करने से उपलब्ध दृष्टि को ‘गीतांजलि’ में उतार पाते हैं तो स्वाभाविक ही है। कबीर पारस हैं। जिसे छू जायें सोना कर दें !

जिस माया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को बाँध रखा है, वह कबीर का बाल भी बाँका नहीं कर पायी । हिन्दुओं-मुसलमानों, नाथों, सिद्धों, सूफियों यानी सम्प्रदायों के अहंकार और ज्ञान और घेरों में कबीर कहीं नहीं फँसे। सब पर प्रहार करने की क्षमताएँ उन्हें उस सत्य की जमीन से प्राप्त हुई जिस पर वह मजबूती से खड़े थे यानी विशुद्ध इन्सान होने की पूरी होश सहज होने की होश :

कह कबीर मैं कछु नहिं कीन्हा

सहज सुहाग राम मोहि दीन्हा।

अहंकार और लोभ का त्याग करने और श्रम को पूजा की महत्ता देने से कबीर को जो सुहाग मिला - वह किसी भी सच्चे धर्म का मूल मंत्र हो सकता है।

भारत के महान संत कबीर साहेब अपने जैसे अकेले महापुरुष हुए हैं भारत में, जिन्हें विश्व अभी पूरी तरह से नहीं जानता। साहित्यकार-विद्वान उन्हें क्रांन्तिदर्शी कवि मानते हैं। समाज-राजनीति के लोग महान समाज-सुधारक । कबीर पंथी-अनुयायी ईश्वर का अवतार । धर्म-अध्यात्म-योग के क्षेत्र में वह स्वसंवेद या वेद की अवतारना करने वाले अनन्य योगी और धार्मिक माने जाते हैं। हिन्दू और हिन्दू मानते हैं, मुसलमान मुसलमान। कबीर स्वयं को न हिन्दू मानते हैं, न मुसलमान। सिर्फ एक इन्सान मानते हैं और दुनिया भर को उनका यही प्रमुख उपदेश है कि ख़ुद को एक इन्सान मानों और अच्छा इन्सान सिद्ध करो। उसने जन्म, मृत्यु आदि के बाबत कई-कई इस उक्ति के अनुसार ही मानी जाती है। “चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार इक ठाठ ठए।” अर्थात कबीर का जन्म संवत् 1455 विक्रमी (सन् 1398 ई.) के आस-पास माना जाता है। साहित्यिक-ऐतिहासिक दस्तावेज इसी तिथि को प्रमाणित करते हैं।

उनके जन्म के बारे में कई-कई कथाएँ प्रचलित हैं। सबसे अधिक मान्य कथा के अनुसार कबीर का जन्म काशी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ । लोकलाज के भय से इस शिशु को जन्म लेते ही उसे लहरतारा नामक तालाब के किनारे पर छोड़ दिया। वहाँ से गुजरते हुए नीरू पर नीमा नाम के जुलाहा दम्पति ने उसे उठा लिया। घर ले आये। अपनी संतान बना कर पालन किया। उसे अपने पेशे के हुनर दिये।

जाति जुलाहा नाम कबीरा,

बनि बिन फिरौं उदासी।(क.ग्रं.)


इस तरह कबीर को हिन्दू और मुस्लिम दोनों के संस्कार प्राप्त हुए। कहते हैं कबीर बचपने से ही अन्तर्मुखी, एकान्तप्रिय और साधु स्वभाव के थे। साधुओं की संगति उन्हें प्रिय थी। भक्ति में मन रमता था। उन्हें इन्हीं साधु-संतों के सम्पर्क और संगति में आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में गुरु रामानंद की कृपा से आत्मज्ञान में भक्तिभाव का भी समावेश हो गया।
वह उपने पैतृक जुलाहा कार्य करते हुए प्रभु की भक्ति में लीन रहते है। आत्मशुद्धि और ज्ञान-चर्चा में मस्त रहते । कबीर की पत्नी का नाम ‘लोई’ माना जाता है। कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) उनके दो संतानों हुई । कबीर मृत्यु से पूर्व मगहर चले गये थे। उनकी रचनाओं में भी इस बात के संकेत विद्यमान हैं :

सकल जनम शिवपुरी गवाइया ।

मरती बार मगहरि उठि धाइया।।


मगहर में कबीर की समाधि अब भी मौजूद है। मगहर में ही उनकी मृत्यु हुई। जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी भिन्न-भिन्न मत हैं। किन्तु अधिकतर विद्वान निम्न दोहे के आधार पर उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन् 1518 ईं.) मानते हैं :


संवत् पन्द्रह सौ पछहत्तर कियो मगहर को गौन,

भाग सुधी अकादसी रलो पौन में पौन।।


विश्वभर में जितने भी धर्म-सम्प्रदाय हुए हैं। उसने अनुयायियों में अपने गुरु या आदि-पुरुष के चमत्कारी स्वरूप की कथाएँ जैसे प्रचलित हैं वैसे ही कबीर पंथियों में भी हैं। जैसे जन्म को लेकर कबीर को अवतारी पुरूष सिद्ध करने के लिए उन्हें अयोनिज माना जात है। यह विश्वास है कि कबीर दिव्यपुंज के रूप में कमल-पुष्प के ऊपर अवतरित हुए । इसी प्रकार देहावसान के समय हिन्दू-मुसलमान जब परस्पर लड़ रहे थे - अपनी-अपनी रीति-अनुसार हिन्दू उनके शव पर पड़ी चादर जब हटायी गई तो शव के स्थान पर पुष्प मिले । दोनों तरफ के लोगों ने आधे-आधे पुष्प ले लिए और अपनी-अपनी रीति से अंतिम क्रिया की।



अपने गुरु के चमत्कारी रूप में विश्वास करना धार्मिक विश्वासों का अतिरंजित रूप हो सकता है परंतु यह अस्वाभाविक नहीं है। कबीर-भक्तों की श्रद्धा की अभिव्यक्ति अधिक है, इसमें तथ्यों की जनाकारी भले ही कम है।
कबीर के नाम पर मिलने वाले ग्रंथों की संख्या के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न खोजों के आधार पर अलग-अलग मत हैं। सबसे पहली खोज सन् 1903 में श्री एच.एच विल्सन द्वारा की गई। उन्होंने कबीर साहब के कुल आठ ग्रंथों की सूची गिनाई। किन्तु अंतिम व्यापक खोज जो नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा कराई गई उसके अनुसार 140 ग्रंथों की सूची प्रकाशित की गई। किन्तु इन रचनाओं के प्रामाणिक-अप्रामाणिक होने का निर्णय अभी भी शेष है। बीजक नाम के उनके प्रमुख ग्रंध में रमैनी, शब्द, साखी, कहरा, बसंद, बेलि, बिरहुली, चांचरि, हिंडोला, चौंतीसा, विप्रमतीसी आदि काव्य रूप मिलते हैं।
कबीर साहब की भाषा में अनेक श्रेत्रीय बोलियों, भाषाओं के शब्द सम्मिलित हैं। अतः उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या खिचड़ी कहा गया है। अभिप्राय है कि साधु-संगति में विकसित भाषा। किन्तु मुख्य बात यह है कि उन्होंने जो भी सूक्ष्म से सूक्ष्म बात कहनी चाही है उसके लिए भाषा अपने आप उतरती चली आयी है। उन्हें भाषा की मुहताजी नहीं करनी पड़ी, बल्कि भाषा ही उनकी मुहताज रही है। उन्होंने लोक से भाषा ली और उसमें अपने तेज मिल कर लोक को समर्पित कर दि‍या।
डॉ बलदेव वंशी 
ए-3/283, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063

कबीर साहब (kabeer sahab)

कबीर साहब संवत १४५५ ( सन् १३९८ ) ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को प्रकट हुए | इनके पिता का नाम नूरअली उर्फ़ नीरू  और माता का नाम नीमा  था | कहा जाता है कि  इनकी असली माँ एक हिन्दू विधवा थीं | जब वह रामानंद स्वामी के दर्शन को गयीं तो उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तुम्हें पुत्र पैदा हो | स्त्री घबरा गयी कि मैं तो विधवा हूँ , मुझे कैसे पुत्र प्राप्ति होगी ? स्वामी जी ने कहा कि अब तो मुंह से निकल गया है , तेरा गर्भ किसी को ज्ञात नहीं होगा | स्त्री के पुत्र पैदा हुआ और उसने उसे लहरतारा के तालाब में डाल दिया | नीरू जुलाहा उसे वहां से निकलकर लाया | '' कबीर कसौटी '' के अनुसार जेठ की पूर्णिमा को सोमवार के दिन नीरू को बालक प्राप्त हुआ |
वह स्वामी रामानंद जी के शिष्य थे | एक बार स्वामी जी ने अपने पिता के श्राद्ध के लिए कबीर साहब से पिंड दान के लिए दूध मंगवाया | कबीर साहब एक मरी हुई गाय के मुंह में सानी डालने लगे | लोगों के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि जैसे हमारे गुरूजी के मरे पुरखे पिंड खायेंगे वैसे ही यह गाय भी खायेगी | 
कबीर साहब जुलाहे के घर में पले बढे थे | कपडा बुनते थे | उनकी पत्नी का नाम लोई , बेटे और बेटी का नाम कमाल और कमली था | कोई कहता है कि उन्होंने विवाह ही नहीं किया था , एक लड़के और लड़की को पाला था और लोई उनकी चेली थी |
जो भी हो लोई एक ऊँचे दर्जे की स्त्री थी | कबीर साहब की बहुत बड़ी भक्त थीं एवं जिज्ञासु  महिला थीं |
काशी के पंडित कबीर साहब से बहुत ईर्ष्या रखते थे | एक बार उन्होंने कबीर साहब की तरफ से सब कंगलों को भोजन का निमंत्रण दिया | लाखों आदमी उनके घर के बाहर  जमा हो गए | कबीर साहब ने एक हांडी में थोडा सा भोजन बनाकर कपडे से ढँक दिया और बाहर भिजवा दिया | सेवक से कहा कि हाथ डालकर  जितना भोज निकले लोगों को खिलाते जाओ | सबने पेट भर खाया और हांडी फिर भी वैसे ही भरी  की भरी थी | 
सिकंदर लोधी जब काशी आया तो मुसलमानों और ब्राह्मणों के कहने पर उसने इन्हें जंजीर से बंधवाकर गंगाजी में डलवा दिया , पर यह डूबे नहीं | तब आग में डलवाया , पर कुछ न बिगाड़ सके | फिर एक मस्त हाथी इन पर छोड़ा , वह भी भाग खडा हुआ | काशी के उत्तर बस्ती जिले में मगहर है | परम धाम जाने से पहले कबीर साहब वहीँ जाकर रहे | 
हिन्दुओं ने इनके मृत शरीर को जलाना और मुसलमानों ने गाढ़ना  चाहा | बहुत विवाद फसाद हुआ | अंत में जब चादर उठाकर देखा तो वहां पर  फूल पड़े थे | शरीर गायब था | हिन्दुओं ने फूल लेकर मगहर में समाधि बनायी और मुसलमानों ने कब्र जो अब तक साथ साथ हैं | 
कबीर साहब सच्चे  संत थे | उनकी बानी में से कुछ  साखियाँ नीचे प्रस्तुत हैं----
 
यह तन विष की बेलरी , गुरु अमृत की खान |
सीस दिए जो गुरु मिलें , तो भी सस्ता जान || ( यह तन विष बेल के सामान है , गुरु ही अमृत कि खान हैं | अपना सर कटा कर भी जो गुरु मिल जाएँ तब भी उसे सस्ता ही जानो )

प्रीतम को पतियाँ लिखूं , जो कहीं होय विदेस |
तन में , मन में नैन में , ता को कहा संदेस ||
( प्रीतम को तो मैं तब ख़त लिखूं जो वह कहीं परदेस में हो | जो मेरे तन , मन आँखों में बसा है उसे कैसा संदेस लिखूं | प्रीतम से इनका मतलब ऊपर वाले से है | )


मो में इतनी शक्ति कहाँ , गाऊं गला  पसार |
बन्दे को इतनी घनी ,पड़ा रहे दरबार ||
( मुझ में इतनी शक्ति कहाँ है कि जोर जोर से गला फाड़ कर गाऊं ? अगर बन्दे को इतनी पड़ी है तो वह जाकर दरबार में पड़ा रहे |
इसका मतलब है कि जोर जोर से गाने से गुरु नहीं मिलते , वह तो हमारे अन्दर ही हैं ) 

कबीर आप ठगाइए , और न ठगिये कोय |
आप ठगे सुख उपजै  , और ठगे दुःख होय ||
( कबीर दास जी कहते हैं कि अपने आप को लुटा दो औरों को ठगने से क्या होगा ? अपने आप को लुटा देने से सुख उपजता है , औरों को ठगने से दुःख उपजता है )


पंडित और मसालची , दोनों सूझे नाहीं |
औरन को करें चाँदना , आप अँधेरे माहीं ||
( मतलब कि पंडित और मशाल जलाने वाले दोनों को कुछ नहीं दिखता , दूसरों को रौशनी दिखाते हैं पर खुद अँधेरे में रहते हैं |यानि कि पहले खुद ज्ञान प्राप्त करो , फिर औरों को दो  ) 
 
एक दिन नाहि करि सकै , तो दूजे दिन करि लेहि |
कबीर साधू दरस तें , पावे उत्तम देहि ||

( मतलब कि जो काम एक दिन नहीं किया तब दूसरे दिन जरुर कर लेना | कबीर दास जी कहते हैं कि साधू संतों के दर्शन से उत्तम 
देह कि प्राप्ति होती है )

दूजे दिन नहीं करि सके , तीजे दिन करि जाए |
कबीर साधू दरस तें , मोच्छ मुक्ति फल पाए ||
( मतलब कि दूसरे दिन भी नहीं कर सके तो तीसरे दिन कर लेना , कबीर दास जी कहते हैं कि साधू संतों के दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति होती है )    

तीजे चौथे नहीं करे , तो वार वार करि जाए |
या में विलंब न कीजिये , कहत कबीर समुझाय ||
( तीसरे दिन और चौथे दिन नहीं  किया तो सप्ताह में एक बार जरुर किसी भी वार में करना | इसमें यानि कि संतों के दर्शन में देर न करना , यह कबीर दास जी बार बार समझा कर कह रहे हैं )

वार वार नहीं करि सकै , तो पाख पाख करि लेय |
या में विलंब न कीजिये , कह कबीर समुझाय ||

( अगर वार वार पर भी नहीं कर सके तब पक्ष , पक्ष यानि कि १५ दिनों में कर लेना और अपना जनम सफल कर लेना ) 

पाख पाख नहीं करि सकै , तो मास मास करि जाए |
या में देर न लाइए , कहत कबीर समुझाय ||
( अगर पक्ष पर भी दर्शन नहीं कर सके तो एक महीने में जरुर कर लेना , यह कबीर दास जी समझा कर कह रहे हैं )
 
मास मास नहीं करि सकै , तो छठे मास अलबत्त |
या में ढेल न कीजिये , कहत कबीर अविगत्त ||
( अगर महीने में भी न कर सके तो ६ महीने में एक बार कर लेना , यह कबीर दास जी कह रहे हैं कि इसमें ढील बिलकुल न देना )

छठे मास नहीं करि सकें , बरस दिना करि लेय |
कह कबीर सो भक्त जन , जमहिं चुनौती देय ||
 ( यदि ६ माह में भी नहीं कर सको तब साल में एक बार जरुर दर्शन कर लेना | कबीर दास जी को भक्त जन कहते हैं कि यूँ ही  चुनौती देते रहते हो  )

बरस बरस नहीं करि सकै , ता को लागे दोष |
कहे कबीरा जीव सूं , कबहू  न पावे मोष ||
( अगर साल में एक बार भी दर्शन नहीं किया तब दोष लगता है , कबीर दास जी जीवों से कहते हैं कि तब कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है )

संत कबीर के कुछ शब्द ---


१ 
यह संसार कागद की पुड़िया , बूँद पड़े घुल जाना है ||
यह संसार कांट की बाड़ी , उलझ पुलझ मरि जाना है ||
यह संसार झाड़ और झाँखर , आग लगे बरि जाना है ||
कहत कबीर सुनो भाई साधो , सतगुरु नाम ठिकाना है ||
 
मतलब कि यह संसार एक कागज़ की पुडिया के सामान है , पानी की बूँद पड़ते ही घुल जायेगा , नश्वर है  | यह संसार काँटों की बाड़ी के सामान है जिसमें उलझ कर हम मर जाते हैं | यह संसार झाडियों के सामान है , आग लगते ही जल जाता है | कबीर जी कहते हैं की भगवान् का नाम लेना ही सही ठिकाना है | 

२ 
हुआ जब इश्क मस्ताना , कहें सब लोग दीवाना || 
जिसे लागी सोई जाना , कहे से दर्द क्या माना ||
मैं तेरा दास हूँ बन्दा , तुझी के नेह में फंदा | 
ममत की खान में डूबा , कहो कस मिले महबूबा ||  

मतलब कि जब भगवान से इश्क होता है तब लोग उसे दीवाना कहते हैं | पर जिसे लगन लगी हो वह ही जानता है कि दर्द क्या होता है , मैं तेरा दास हूँ , तेरे प्रेम में फंसा हूँ | तेरी ममता कि खान में फंसा हूँ | 

३  
चौपड़ खेलूं पीव से रे , तन मन बाजी लगाय | 
हारी तो पिय की भयी रे , जीती तो पिय मोर हो || 
लाख चौरासी भरमत भरमत , पौ पे अटकी आय | 
जो अबके पौ न पड़ी रे , फिर चौरासी जाय हो || 

मतलब कि मैं चौपड़ का खेल खेल रही हूँ , अगर हार गयी तो पिया की हुई , मतलब कि भगवान की हुई और जीती तो भगवान मेरा हुआ | चौरासी लाख योनियों में भटकते भटकते मेरी बाजी यहाँ पर अटक गयी है | अगर अब पार नहीं  नहीं लगी तो फिर से चौरासी जाना पड़ेगा , यानि कि जन्म मरण के चक्करों में पड़ना पड़ेगा |








कबीर मजार -मगहर 



कबीरदास जी का कमरा मगहर में 
[4]
कबीर समाधि






 
मगहर का रास्ता 
मगहर -यह गोरखपुर के पास है -NH 28 पर 

आज भी उसर मगहर


आज भी उसर संत कबीर नगर


काशी हो या फिर उजाड़ मगहर मेरे लिए (कबीर) दोनों ही बराबर हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हैं. अगर कबीर की आत्मा काशी में इस तन को त्यागकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा एहसान है…
देश 15वीं सदी से 21वीं सदी में प्रवेश कर गया लेकिन संत कबीर की निर्वाण स्थली आज भी उजाड़ है. समय की धारा के साथ संत कबीर नगर ने का़फी उतार-चढ़ाव देखे. पहले इसे खलीलाबाद कहा जाता था. फिर संत कबीर दास के नाम पर इसे संत कबीर नगर कहा जाने लगा. कबीर का नाम तो मिल गया लेकिन उनके जैसी प्रसिद्धि हासिल न हो सकी. कबीर की निर्वाण स्थली होने के बावजूद यह ज़िला पर्यटन के नक्शे से नदारद है. 11 अगस्त, 2003 की बात है, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मगहर आए थे. मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने भी उस समय मगहर की दुर्दशा को महसूस किया था. अपनी पीड़ा को उन्होंने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाया जाना चाहिए. कबीर के विचार और संदेश आज के दौर में पहले से अधिक प्रासंगिक हैं. कलाम के प्रयासों से एक लाख रुपया समाधि स्थल और एक लाख रुपया मजार स्थल को विकसित करने के लिए मिला था.
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा.
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा
वह दिन है और आज का समय, शासन स्तर से कोई मदद मगहर को नहीं मिली. संत कबीर के दोहों और उनके संदेश का ही असर रहा कि खलीलुर्रहमान ने सर्व धर्म समभाव की भावना के साथ  ़खलीलाबाद नगर बसाया जिसे वर्ष 1997 में ज़िला मुख्यालय का दर्ज़ा मिला.खलीलुर्रहमान मुगल शासन काल में दिल्ली में रहते थे, जहां उनकी मुलाकात मुगल बादशाह औरंगजेब से हुई. खलीलुर्रहमान की बुद्धिमता से प्रभावित होकर औरंगजेब ने उन्हें गोरखपुर परिक्षेत्र का चकलेदार एवं काजी नियुक्त कर दिया.  खलीलुर्रहमान ने गोरखपुर और बस्ती के बीच खलीलाबाद कस्बा बसाया. वर्ष 1737 में उन्होंने शाही  किला बनवाया. किले के अंदर मस्जिद का निर्माण भी कराया गया. खलीलुर्रहमान ने अपने पुश्तैनी गांव मगहर स्थित जामा मस्जिद से शाही किले तक आने-जाने के लिए सुरंग मार्ग भी बनवाया जो नौ किलोमीटर लंबा और 15 फीट चौड़ा है. इसी रास्ते से वह अपनी टमटम पर बैठकर किले तक जाते थे और वहां फरियादियों की दिक्कतोंको सुनकर इंसा़फ करते थे. किले और शाही रास्ते की सुरक्षा के लिए हर समय पहरेदारों की तैनाती रहती. गोरखपुर और बस्ती के बीच स्थित शाही किले खलीलाबाद को बारी (मुख्यालय) का दर्ज़ा हासिल था. मुगल शासनकाल में गोरखपुर का मुख्यालय खलीलाबाद ही था. खलीलाबाद जहां का तहां रह गया लेकिन गोरखपुर और बस्ती दोनों ही मंडल मुख्यालय बन चुके हैं. काजी खलीलुर्रहमान की प्रसिद्धि इतनी फैली कि मगहर के एक मोहल्ले का नाम ही काजीपुर पड़ गया. काजी  खलीलुर्रहमान के वंशज आज भी अपने नाम के आगे काजी शब्द जोड़ना नहीं भूलते हैं. काजी का मतलब न्यायाधीश, जो उन्हें अपने ग़ौरवशाली अतीत की याद दिलाता है. बताया जाता है कि खलीलुरर्र्हमान साहब एक बार मथुरा गए जहां उन्होंने कई हिंदू मंदिरों में दर्शन पूजन किया. कबीर का प्रभाव उनके मन-मस्तिष्क पर पहले से ही था, सर्व धर्म समभाव की अलख जगाने के लिए उन्होंने शाही  किले में एक मंदिर का निर्माण भी कराया. मुगल शासन काल का अंत होने के साथ ही खलीलाबाद का वैभव भी फीका पड़ने लगा. शाही किले पर क़ब्ज़ा करने के मकसद से अंग्रेजों ने आक्रमण किया लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी. इसमें कई लोग शहीद भी हुए जिन पर समूचा ़खलीलाबाद आज भी गर्व करता है. शाही किले के अंदर पूरब दिशा में पहले तहसील कार्यालय हुआ करता था, जो अब डाक बंगला के सामने स्थानांतरित हो चुका है. किले के पश्चिमी  हिस्से में स्थापित माता का मंदिर हिंदू समाज की आस्था का केंद्र है.
शाही किला वर्तमान समय में पुलिस कोतवाली में तब्दील हो चुका है. किले के पीछे के हिस्से में पूरब दिशा में निकास स्थान का स्वरूप बदलकर इसे कोतवाली में बदल दिया गया है. राजनीतिक उपेक्षा और प्रशासनिक लापरवाही से यह धरोहर नष्ट होने को है. मगहर से खलीलाबाद तक नौ किलोमीटर लंबे शाही मार्ग के अब अवशेष ही बचे हैं. उन्हें डर है कि कहीं सरकार पर्यटन विभाग इसे अपने क़ब्ज़े में न कर ले. शाही किला हाथ से निकल गया और आज वह दुर्दशा का शिकार है. फिर इस सुरंग का भी बुरा हाल होगा. मगहर निवासी काजी अदील अहमद बताते हैं कि 50 एकड़ क्षेत्रफल में फैले भू-भाग में उनके पूर्वज काजी खलीलुर्रहमान साहब ने शाही किले, मस्जिद, मंदिर और पोखरे का निर्माण कराया था, जो उनकी कौमी  एकता की विचारधारा को पुष्ट करता है. वह गर्व से कहते हैं कि जाति धर्म से ऊपर उठकर काजी खलीलुर्रहमान ने जो कार्य किए, वह इतिहास के पन्नों में उन्हें सदैव के लिए अमर कर गए हैं. काजी अदील जानकारी देते हैं कि शाही किले में वर्ष 1953 में पुलिस थाना बनाया गया. किले के स्वरूप में बदलाव करते हुए इसके पिछले हिस्से को कोतवाली के मुख्य द्वार के रूप में तब्दील कर दिया गया. खाली भूखंड पर पुलिसकमिर्र्यों के लिए आवास बनवा दिए गए. काजी अदील अहमद ने 50 एकड़ में फैले इस भू-भाग को अपनी खानदानी संपत्ति बताते हुए शासन से इसे उनके परिवार के सुपुर्द करने की मांग भी की है. वहीं संत कबीर नगर के नागरिकों की मंशा है कि शासन प्रशासन के अधिकारी मगहर से शाही  किले तक बनवाई गई सुरंग की सा़फ-सफाई कराकर उसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करे और पूरे हिस्से को राष्ट्रीय स्मारक का दर्ज़ा देकर उसका संरक्षण किया जाए. कबीर की निर्वाण स्थली और काजी खलीलुर्रहमान के शाही किले के साथ ही पर्यटन के लिए इस ज़िले में रमणीय स्थलों की कमी नहीं है. यहां खलीलाबाद से आठ किलोमीटर की दूरी पर गामा गांव में महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है. यह मंदिर भगवान तामेश्वर नाथ को समपिर्र्त है. मान्यता है कि मंदिर में स्थापित मूर्ति तामा के समीप स्थित जंगल में मिली थी. राजा बंसी ने इस मूतिर्र् को मंदिर में स्थापित कराया. प्रत्येक वर्ष यहां शिवरात्रि में बड़ा मेला लगता है जिसमें लाखों भक्त हिस्सा लेते हैं. इसके अलावा कई अन्य स्थान हैं जो पर्यटकों को सहज रूप में अपनी ओर आकर्षित करते हैं फिर भी पर्यटन के नक्शे पर संत कबीर नगर उपेक्षित है.

जस काशी तस मगहर


गोरखपुर से लौटते हुये मगहर जाने की सोची. एक सोता हुआ कस्बा. कस्बे के एक छोर पर बहती है नदी आमी. कहाँ काशी की प्रतिष्ठा और कहाँ मगहर का अपयश. कहते हैं मगहर बना है मार्ग हर अर्थात मार्ग में लूटने वाले से. कहाँ पुनीत गंगा और कहाँ आमी के जल की एक पतली रेखा. फिर भी कबीर ने कहा, जस काशी तस मगहर. क्यों? कबीर ने विदा होते होते भी एक बड़ा संदेश दिया, जगह महत्वपूर्ण नहीं होती, महत्व तो आचार का है, कर्म का है. कहने को तो कबीर यह बात अपने कवित्त में भी कह सकते थे पर उन्होंने वह किया जिसे उदाहरण द्वारा नेतृत्व कहते हैं. 

मगहर में कबीर धाम एक रमणीक स्थान है, नदी के किनारे और पेड़ो से आच्छादित. निर्गुण संतो की विशेषता है कि उन्हें किसी धर्म से जोड़ कर नहीं देखा जाता. यहाँ एक ओर कबीर की मजार है और दूसरी ओर उनकी समाधि. दोनों छोटे छोटे सफेद भवन पर पूरा वातावरण पवित्र लगता है. समाधि पर तीर्थ यात्रियों का एक जत्था आया है, ढ़पली पर थाप और मंजीरों की झनकार के बीच कबीर के दोहे और साखियां गायी जा रही हैं. लग रहा है कबीर और उनके साथी रैदास, सेना, पीपा बैठे हैं और भक्ति का रस बह रहा है।



झीनी झीनी बीनी चदरिया 
.................. दास कबीर जतन तें ओढ़ी 
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया 

प्रांगड़ में घूमते घूमते एक छोटी लड़की मिली, राधिका. 
मैंने पूछा, “कहाँ रहती हो”
राधिका बोली, “यहीं पास में”. बड़ी बातून लग रही है, खुद ही बताने लगी, “मां बाप नहीं हैं. दादी के साथ रहती हूँ. कबीरपंथियों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढ़ती हूँ. कक्षा सात में”. 
मैंने पूछा, “रोज आती हो यहाँ” 
“हाँ. पूजा करने. हम कबीरपंथी हैं, न!” 
मैंनें छेड़ा, “मजार पर जाती हो या समाधि पर” 

कितनी मोहक मुस्कान है उसकी, बोली, “आपको पता है, यहाँ मजार और समाधि दोनों क्यों हैं?” 
मैंने पढ़ी तो थी कहानी बचपन में पर उसे बढ़ावा दिया. वो बताने लगी, “कबीर ने जब देह त्याही तो उनके शिष्यों में अन्तिम संस्कार को लेकर झगड़ा होने लगा. हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शरीर जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाना चाहते थे. पर जब चादर हटी तो शरीर की जगह उन्हें कुछ फूल मिले. आधे आधे फूल बांटकर हिन्दुओं ने एक ओर समाधि बना ली और मुसलमानों ने एक ओर मजार”

राधिका के सिर पर हाथ फेरा और चल दिया. कुछ ही देर में घाघरा/सरुयू का विस्तार दिखा, मैं अयोध्या से गुजर रहा था. मगहर से एक कैसिट ली थी, वह कार में बज रही है, 

मोको कहाँ ढ़ूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में 
ना मैं देवल, ना मस्जिद, ना काबे कैलास में.. 
साभार पंकज जी 

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

सरकारी उपेक्षा के कारण कबीर के निर्वाण स्थल का विकास अधूरा


उत्तर प्रदेश में संत कबीर नगर जिले के मगहर में संत कबीर के निर्वाण स्थल मगहर को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा अंतरराष्ट्रीय पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किए जाने की आवश्यकता व्यक्त करने के बावजूद राज्य सरकार से कोई सहयोग नहीं मिलने से इसका विकास कार्य ठप्प पड़ गया है। 
मगहर के सदगुरु कबीर संस्थान के महंत विचार दास ने बताया कि डॉ. कलाम ने 11 अगस्त 2003 में मगहर के दौरे के समय इस स्थान को अंतरराष्ट्रीय पर्यटक स्थल बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए विश्व शांति के लिए संत कबीर के उपदेशों के व्यापक प्रचार-प्रसार के वास्ते यहां एक शोध केन्द्र, पुस्तकालय और संग्रहालय की स्थापना की बात कही थी। उनके प्रयास से समाधि स्थल और मजार स्थल को विकसित करने के लिए एक-एक लाख रुपए मिले थे लेकिन उसके बाद राज्य सरकार से अन्य कार्यों के लिए सहयोग नहीं मिलने के कारण इस स्थान का विकास नहीं हो पा रहा है। 

उन्होंने बताया कि संत कबीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने और कबीर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य से 1993 में तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने संत कबीर शोध संस्थान की स्थापना कराई थी। मगहर में हर साल तीन बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिनमें 12-16 जनवरी तक मगहर महोत्सव और कबीर मेला, माघ शुक्ल एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्वाण दिवस समारोह और कबीर जयंती समारोह के अंतर्गत चलाए जाने वाले अनेक कार्यक्रम शामिल हैं। मगहर महोत्सव और कबीर मेला में संगोष्ठी, परिचर्चाएं तथा चित्र एवं पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कबीर जयंती समारोह में अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से संत कबीर के संदेशों का प्रचार-प्रसार किया जाता है। 

महंत विचार दास ने बताया कि इनके अलावा कबीर मठ सात प्रमुख गतिविधियां संचालित करता है जिनमें संगीत, सत्संग एवं साधना, कबीर साहित्य का प्रचार-प्रसार, शोध साहित्य, कबीर बाल मंदिर संत आश्रम एवं गोसेवा तथा वृद्धाश्रम और यात्रियों की आवासीय व्यवस्था शामिल हैं।
मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित होने वाले मगहर महोत्सव का इतिहास काफी पुराना है। पहले इस दिन एक दिन का मेला लगता था। सन 1932 में तत्कालीन कमिश्नर एस.सी.राबर्ट ने मगहर के धनपति स्वर्गीय प्रियाशरण सिंह उर्फ झिनकू बाबू के सहयोग से यहां मेले का आयोजन कराया था। राबर्ट जब तक कमिश्नर रहे तब तक वह हर साल इस मेले में सपरिवार भाग लेते रहे। उसके बाद 1955 से 1957 तक लगातार तीन साल भव्य मेलों का आयोजन किया गया। सन 1987 में इस मेले का स्वरूप बदलने का प्रयास शुरु किया गया और 1989 से यह महोत्सव सात दिन और फिर पांच दिन का हो गया। इस महोत्सव में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी, कबीर दरबार, कव्वाली, सत्संग, भजन, कीर्तन तथा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे आयोजित किए जाते हैं। 
मगहर का नाम कैसे पड़ा इस बारे में कई जनश्रुतियां हैं जिनमें एक यह है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारतीय स्थलों के भ्रमण के लिए आए बौद्ध भिक्षुओं को इस स्थान पर घने वनमार्ग पर लूट-हर लिया जाता था। यही मार्गहार शब्द कालान्तर में अपभ्रंश होकर मगहर बन गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार मगधराज अजातशत्रु ने बद्रीनाथ जाते समय इसी रास्ते पर पड़ाव डाला और अस्वस्थ होने के कारण कई दिन तक यहां विश्राम किया जिससे उन्हें स्वास्थ्य लाभ हुआ और शांति मिली। तब मगधराज ने इस स्थान को मगधहर बताया। इस शब्द का मगध बाद में मगह हो गया और यह स्थान मगहर कहा जाने लगा। 
कबीरपंथियों और महात्माओं ने मगहर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- मर्ग यानी रास्ता और हर यानी ज्ञान अर्थात ज्ञान प्राप्ति का रास्ता। यह व्युत्पत्ति अधिक सार्थक लगती है क्योंकि यदि देश को साम्प्रदायिक एकता के सूत्र में बांधना है तो इसी स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। 
गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप बस्ती से 43 किलोमीटर और गोरखपुर से 27 किलोमीटर दूरी पर स्थित मगहर 1865 तक गोरखपुर जिले का एक गांव था। बाद में यह बस्ती जिले में शामिल हो गया। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती ने सितम्बर 1997 में बस्ती जिले के कुछ भागों को अलग करके संत कबीर नगर नाम से नए जिले के सृजन की घोषणा की जिनमें मगहर भी था। उसी दिन मायावती ने संत कबीर दास की कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया।